अलसी की आधुनिक खेती
अलसी का उत्पादन मुख्यत: खाद्य तेल के लिए किया जाता है | इसका तेल का उपयोग दवाई बनाने के काम में भी आता है | इसके तेल का पेंट्स, वार्निश व स्नेहक बनाने के साथ पैड इंक तथा प्रेस प्रिटिंग हेतु स्याही तैयार करने में उपयोग किया जाता है | इसके आलावा अलसी की खली दूध देने वाले पशुओं के लिए बहुत उपयोगी है | इसके साथ – साथ जैविक खाद बनाने में कम आता है | यह फसल सरसों , राई तथा तोरई के समांतर ही फसल है | यह फसल कम तापमान वाले क्षेत्रों में किया जाता है |
किसान परम्परागत खेती करने से बचें
आज भी भारत के किसान अलसी की खेती परम्परागत तरह से करते हैं जिसके कारण उत्पादन बहुत कम होता है | जैसे की अक्सर किसान अलसी की खेती कम उपजाऊ भूमि, असिंचित भूमि, पुराने बीजों का उपयोग करना , उर्वरक का प्रयोग कम या नहीं करना , रोग तथा कीट से बचाव का उपाय नहीं करना | इन सभी कारणों से किसान अलसी की खेती में थोडा कम जागरूक हैं |
अलसी की खेती किस तरह की जलवायु में की जा सकती है ?
खेती के लिए कम तापमान वाले जलवायु की जरुरत पड़ती है | अलसी की खेती के लिए बुवाई के समय का तापमान 25 से 30 डिग्री सेन्टीग्रेट तापमान तथा बीज बनते समय तापमान 15 से 20 डिग्री सेन्टीग्रेट होना चाहिए | इसकी खेती 40 से 50 सेन्टीमीटर वर्षा वाले क्षेत्र में किया जा सकता है |
अलसी की खेती के लिए भूमि किस तरह होना चाहिए ?
काली एवं दोमट मिटटी अलसी की खेती के लिए उपयुक्त है | इसकी खेती के लिए अधिक उपजाऊ भूमि होना जरुरी नहीं है |लेकिन बहुत कम उपजाऊ भी हानिकारक है | इसके अलावा भूमि से जल निकासी का प्रबंधन होना जरुरी है |
खेत की तैयारी कैसे करें ?
अच्छी पैदावार प्राप्त करने के लिए मिटटी भुरभुरी तथा खरपतवार रहित होना चाहिए | इसलिए अतः खेत को 2-3 बार हैरो चलाकर पाटा लगाना आवश्यक है जिससे नमी संरक्षित रह सके | अलसी का दाना छोटा एवं महीन होता है, अतः अच्छे अंकुरण हेतु खेत का भुरभुरा होना अतिआवश्यक है |
अधिक पैदावार के लिए कौन सा प्रजातियाँ का चयन करें ?
अलसी की बीज का चुनाव करते समय अपनी भूमि के अनुसार तथा रोग प्रतिरोधक क्षमा जरुर देखें | इसके अलावा अलसी की बीज सिंचित तथा असिंचित दोनों तरह की आती है | इसलिए अपने क्षेत्र में पानी की उपलब्धता को जरुर ध्यान में रखें |
आप के लिए सभी तरह के प्रजातियों की जानकारी दिया जा रहा है |
प्रजाति |
विमोचन वर्ष |
पकने की अवधि (दिनो में) |
उपज क्षमता (क्विं./हे.) |
विशेषतायें |
जवाहर अलसी-23(सिंचित) |
1992 |
120-125 |
15-18 |
दहिया एवं उकठा रोग के लिये प्रतिरोधी, अंगमारी तथा गेरूआ के प्रति सहनशील |
सुयोग (जे..एल.एस.-27) (सिंचित) |
2004 |
115-120 |
15-20 |
गेरूआ, चूर्णिल आसिता तथा फल मक्खी के लिये मध्यम रोधी |
जवाहर अलसी-9(असिंचित) |
1999 |
115-120 |
11-13 |
दहिया, उकठा, चूर्णिल आसिता एवं गेरूआ रेाग के लिये प्रतिरोधी |
जे.एल..एस.-66 (असिंचित) |
2010 |
114 |
12-13 |
चूर्णिल आसिता, उकठा, अंगमारी एवं गेरूआ रोगो के लिये रोधी |
जे.एल..एस.-67 (असिंचित) |
2010 |
110 |
11-12 |
चूर्णिल आसिता, उकठा, अंगमारी एवं गेरूआ रोगो के लिये रोधी |
जे.एल.एस.-73 (असिंचित) |
2011 |
112 |
10-11 |
चूर्णिल आसिता, उकठा, अंगमारी एवं गेरूआ रोगो के लिये रोधी |
अलसी की उतेरा पद्धति क्या है ?
इस तरह की पद्धति उस क्षेत्र में अपनाया जाता है जिस क्षेत्र में धान की खेती होती है | इस पद्धति में धान की फसल के कटाई से पहले अलसी की बीज को खेत में छिड़काव कर देते हैं | इससे यह होता है की धान की कटाई के समय अलसी की बीज खेत के नमी को उपयोग करते हुये अंकुरित हो जाता है |जिसके कारण संचित नमी से ही अलसी की फसल पककर तैयार की जाती है। अलसी इस विधि को पैरा/उतेरा पद्धति कहते है |इस पद्धति के लिए जवाहर अलसी-552, जवाहर अलसी-7, एलसी 185,सुरभि. बेनर बीज का ही उपयोग करें |
बुवाई का उचित समय कब होगा ?
असिंचित क्षेत्रो में अक्टूबर के प्रथम पखवाडे़ में तथा सिचिंत क्षेत्रो में नवम्बर के प्रथम पखवाडे़ में बुवाई करना चाहिये। उतेरा खेती के लिये धान कटने के 7 दिन पूर्व बुवाई की जानी चाहिये। जल्दी बोनी करने पर अलसी की फसल को फली मक्खी एवं पाउडरी मिल्डयू आदि से बचाया जा सकता है |
बीज का उपयोग कितना और कैसे करें ?
अलसी कीबुवाई 25-30 किग्रा प्रति हेक्टेयर की दर से करनी चाहिये। कतार से कतार के बीच की दूरी 30 सेमी तथा पौधे से पौधे की दूरी 5-7 सेमी रखनी चाहिये। बीज को भूमि में 2-3 सेमी की गहराई पर बोना चाहिये।
इसके अलावा उतेरा पद्धति के लिए बीज का उपयोग 40 – 45 किलोग्राम बीज / हेक्टयर की दर अलसी की बोनी हेतु उपयुक्त हैं |
बीजोपचार कैसे करें ?
बीज का बीजोपचार जरुर करना चाहिए | बीजोपचार करने से रोग तथा कीट से बचाव किया जाता है | इसके लिए बीज को बुवाई से पूर्व बीज को कार्बेन्डाजिम की 2.5 से 3 ग्राम मात्रा प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करना चाहिये अथवा ट्राइकोडरमा विरीडी की 5 ग्राम मात्रा अथवा ट्राइकोडरमा हारजिएनम की 5 ग्राम एवं कार्बाक्सिन की 2 ग्राम मात्रा से प्रति किलोग्राम बीज को उपचारित कर बुवाई करनी चाहिये |
खाद और उर्वरक का प्रयोग कितना करें ?
अलसी किखेती के लिए गोबर खाद 4-5 टन/हे. अन्तिम जुताई के समय खेत में अच्छी तरह से मिला देना चाहिये । मिट्टी परीक्षण अनुसार उर्वरकोंका प्रयोग अधिक लाभकारी होता है |
उर्वरक
अलसी को असिंचित अवस्था में नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटाश की क्रमशः 40:20:0 किग्रा./हे. देना चाहिये । बोने के पहले सीडड्रिल से 2-3 से.मी. की गहराई पर उर्वरकों की पूरी मात्रा देना चाहिये |
सिंचित खेती के लिए अलसी फसल को नाइट्रोजन, फास्फोरस व पोटाश की क्रमशः 60-80:40:20 कि.ग्रा./हे. देना चाहिये । नाइट्रोजन की आधी मात्रा फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा बोने के पहले तथा बची हुई नाईट्रोजन की मात्रा प्रथम सिंचाई के तुरन्त बाद टाप ड्रेसिंग के रूप में देना चाहिये । अलसी एक तिलहन फसल है और तिलहन फसलों से अधिक उत्पादन लेने हेतु 20-25 कि.ग्रा./हे.सल्फर भी देना चाहिये । सल्फर की पूरी मात्रा बीज बोने के पहले देना चाहिये । इसके अतिरिक्त 20 किग्रा. जिंक सल्फेट/हेक्ट. की दर से बोनी के समय आधार रूप में देवे।
खरपतवार से फसल को कैसे बचायें ?
किसी भी फसल के लिए खरपतवार प्रबंधन करना बहुत जरुरी है | इसके लिए अलसी के बुवाई के 20 से 25 दिन पश्चात पहली निदाई-गुड़ाई एवं 40-45 दिन पश्चात दूसरी निदाई-गुड़ाई करनी चाहिये। अलसी की फसल में रासायनिक विधि से खरपतवार प्रबंधन हेतु पेन्डामेथिलिन 1 किलोग्राम सक्रिय तत्व को बुवाई के पश्चात एवं अंकुरण पूर्व 500-600 लीटर पानी में मिलाकर खेत में छिडकाव करें |
जल प्रबंधन (सिंचाई ) कैसे करें ?
अच्छे उत्पादन के लिये विभिन्न क्रांतिक अवस्थाओं पर 2 सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है।यदि दो सिंचाई उपलब्ध हो तो प्रथम सिंचाई बुवाई के एक माह बाद एवं द्वितीय सिंचाई फल आने से पहले करना चाहिये। सिंचाई के साथ-साथ प्रक्षेत्र में जल निकास का भी उचित प्रबंध होना चाहिये। प्रथम एवं द्वतीय सिचाई क्रमशः 30-35 व 60 से 65 दिन की फसल अवस्था पर करें|
अलसी को रोगों से कैसे बचायें ?
इस में लगने वाले रोगों की संख्या बहुत है | इसके लिए आप सभी किसानों के लिए सभी तरह के रोगों की जानकारी तथा निवारण की जानकारी ले कर आया है |
1- गेरुआ (रस्ट) रोग यह रोग मेलेम्पसोरा लाइनाई नामक फफूंद से होता है। रोग का प्रकोप प्रारंभ होने पर चमकदार नारंगी रंग के स्फोट पत्तियों के दोनों ओर बनते हैं, धीरे धीरे यह पौधे के सभी भागों में फैल जाते हैँ । रोग नियंत्रण हेतु रोगरोधी किस्में जे.एल.एस. 9, जे.एल.एस 27, जे.एल.एस.. 66, जे.एल.एस.. 67, एवं जे.एल.एस. .73 को लगायें। रसायनिक दवा के रुप में टेबूकोनाजोल 2 प्रतिशत 1 ली. प्रति हेक्टे. की दर से या ;केप्टाऩ हेक्साकोनाजालद्ध का 500-600 ग्राम मात्रा को 500 लीटर पानी मे घोलकर छिड़काव करना चाहिए |
2- उकठा (विल्ट) यह अलसी का प्रमुख हांनिकारक मृदा जनित रोग है इस रोग का प्रकोप अंकुरण से लेकर परिपक्वता तक कभी भी हो सकता है। रोग ग्रस्त पौधों की पत्तियों के किनारे अन्दर की ओर मुड़कर मुरझा जाते हैं। इस रोग का प्रसार प्रक्षेत्र में पडे़ फसल अवशेषों द्वारा होता है। इसके रोगजनक मृदा में उपस्थित फसल अवशेषों तथा मृदा में उपस्थित रहते हैँ तथा अनुकूल वातावरण में पौधो पर संक्रमण करते हैं। उन्नत प्रजातियों को लगावें |