
मानव ने मानव सभ्यता की शुरुआत से आधुनिक दुनिया तक आर्थिक विकास के लिए अपने प्राकृतिक संसाधनों का भरपुर दोहन किया है। कृषि की उत्क्रांति अवधि में, मानव स्थानांतरण कृषि पर निर्भर थे, जो अभी भी उत्तरपूर्व भारत के आदिवासी क्षेत्र में प्रचलित है।
पारंपरिक कृषि क्या है?
कृषि की ऐसी प्राचीन शैली जिसमें स्वदेशी ज्ञान, पारंपरिक उपकरण, प्राकृतिक संसाधनों, जैविक उर्वरक और किसानों की सांस्कृतिक मान्यताओं का गहन उपयोग हो उसे पारंपरिक कृषि कहते हैं। संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के अनुसार, विश्व में 250 मिलियन से अधिक आबादी अपनी जीवन निर्वाह के लिए इसी प्रकार की कृषि पर निर्भर है।
पारंपरिक कृषि के विशेषताएँ
1. स्वदेशी ज्ञान और उपकरणों का व्यापक उपयोग
2. कुल्हाड़ी, कुदाल और छड़ी जैसे स्वदेशी उपकरण का उपयोग
3. विधि: स्थानांतरण कृषि या झूम कृषि (slash and burn farming)
4. पशु पालन सुदूर भूमि बनाने में मदद करता है
5. पर्यावरण के लिए कोई जवाबदेही और जिम्मेदारी नहीं होती है।
6. अधिशेष उत्पादन की कमी
विश्व भर में स्थानांतरण कृषि के स्थानीय नामों की सूची
पर्यावरण पर पारंपरिक कृषि का प्रभाव
पर्यावरण पर पारंपरिक कृषि के प्रभावों के बारे में नीचे चर्चा की गई है:
1. पोषक तत्वों की कमी
स्थानांतरण कृषि या झूम कृषि (slash and burn farming) जैसी प्राचीन कृषि शैली मिट्टी से कार्बनिक पदार्थ और मिट्टी की पोषक तत्व को कम कर देती है। इस के कारण किसानों को खेती के लिए स्थानांतरण करना पड़ जाता है।
2. वनोन्मूलन
स्थानांतरण कृषि या झूम कृषि (slash and burn farming) जैसी प्राचीन कृषि शैली के लिए बड़े पैमाने पर जंगलो की कटाई करनी होती है जिसके वजह से जलवायु, पर्यावरण, जैव-विविधता तथा पूरे वातावरण में बहुत ही नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है साथ ही साथ मानव जाति के सांस्कृतिक और भौतिक रहन-सहन के लिए खतरा भी है।
3. मृदा क्षरण
स्थानांतरण कृषि या झूम कृषि (slash and burn farming) जैसी प्राचीन कृषि शैली के कारण वनोन्मूलन होता है जिसके वजह से प्राकृतिक भौतिक शक्तियों के द्वारा मिट्टी की उपरी सतह हट जाती है और उसकी उर्वरता ख़त्म हो जाती है।
इसलिए, हम यह कह सकते हैं कि हमारा कर्तव्य है न केवल प्राकृतिक संसाधनों का उपभोग करे अपितु सतत विकास पर भी जोर दिया जाये।