भीष्म पितामह और शरशैया | महाभारत की कथाएं | Incredible Stories From Mahabharata

हाभारत का युद्ध अंतिम दौर में था। भीष्म पितामह शरशैया पर लेटे थे। युधिष्ठिर अपने भाइयों के साथ उनके चरणों के समीप बैठे उनका धर्मोपदेश सुन रहे थे। तभी द्रौपदी वहां उपस्थित हुई और बोली, 'पितामह मेरी भी एक शंका है।' 'बोलो बेटी', भीष्म ने स्नेहपूर्वक कहा। 'पितामह! मैं पहले ही क्षमा याचना कर लेती हूं। प्रश्न जरा टेढ़ा है।' 

 

 

'बेटी, जो पूछना है निर्भय होकर पूछो।' भीष्म बोले। 'पितामह! जब भरी सभा में दु:शासन मेरा चीरहरण कर रहा था, उस समय आप भी वहां उपस्थित थे, किंतु आपने मेरी सहायता नहीं की। बताइए, उस समय आपका विवेक और ज्ञान कहां चला गया था? एक अबला के चीर हरण का दृश्य आप अपनी आंखों से किस प्रकार देख सके थे?' यह सुनकर पांडव चौंक उठे। भीष्म गंभीर हो गए। यह प्रश्न उनके सम्मुख पहली बार नहीं आया था। जिस समय यह घटना घटी थी उस समय भी यही प्रश्न उनके सम्मुख था। उसके बाद जब कभी उन्हें इस घटना का स्मरण होता, तो वह प्रश्न रूप में ही उनके सामने रहता। आज द्रौपदी ने स्पष्ट पूछ लिया था। भीष्म बोले, 'बेटी, तुम ठीक कहती हो। असल में बात यह है कि मैं उस समय दुर्योधन का पाप से पूर्ण अन्न खा रहा था। वही पाप मेरे मन और मस्तिष्क में समाया हुआ था। मैं देख रहा था कि यह अत्याचार हो रहा है, अधर्म हो रहा है, लेकिन उसको रोक नहीं सका। मैं चाहता था कि ऐसा न हो, किंतु मना करने का सार्मथ्य मुझमें नहीं रह गया था...।' 

 

' लेकिन आज सहसा यह ज्ञान कैसे प्रकट हो रहा है?' द्रौपदी ने बीच में ही कहा। 'बेटी, आज र्जुन के बाणों ने मेरा वह सारा रक्त बाहर निकाल दिया है जिसमें दुर्योधन के पाप के अन्न का प्रभाव था। अब तो मैं रक्तविहीन प्राणी हूं, इसलिए मेरा विवेक आज सजग है। मेरे शरीर से पाप के अन्न से बना रक्त निकल गया है।' इसके बाद द्रौपदी के पास कुछ कहने को नहीं रहा। इस उत्तर से वह संतुष्ट हो गई। 

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